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अश्वगंधा: प्रमुख रोग, लक्षण, बचाव एवं नियंत्रण | Ashwagandha: Major Diseases, Symptoms, Prevention and Control
अश्वगंधा की खेती भारत के कई राज्यों में की जाती है, जिनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और पंजाब शामिल हैं। इसके अलावा केरल और तमिलनाडु जैसे कुछ दक्षिणी राज्यों में भी इसे उगाया जाता है। अश्वगंधा के पौधे अपने औषधीय गुणों के कारण प्रचलित हैं। इसकी जड़ों का इस्तेमाल कई तरह की दवाओं एवं सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण में किया जाता है। कई रोगों का इलाज करने वाली अश्वगंधा की फसल भी कुछ रोगों से प्रभावित हो सकती है। अश्वगंधा की फसल में लगने वाले कुछ प्रमुख रोगों के लक्षण एवं नियंत्रण की विस्तृत जानकारी के लिए इस पोस्ट को ध्यान से पढ़ें।
अश्वगंधा के पौधों में लगने वाले कुछ प्रमुख रोग | Some major diseases affecting grape plants
लीफ स्पॉट रोग से होने वाले नुकसान: इस रोग को पत्ती धब्बा रोग के नाम से भी जाना जाता है। लीफ स्पॉट एक कवक रोग है जो अश्वगंधा के पौधों की पत्तियों को प्रभावित करता है। प्रभावित पौधों की पत्तियों पर छोटे-छोटे भूरे रंग के धब्बे उभरने लगते हैं। ये धब्बे आकार में गोल होते हैं। रोग बढ़ने के साथ धब्बे बड़े होते जाते हैं और आपस में मिल जाते हैं, जिससे प्रभावित पत्तियां झड़ने लगती हैं और उपज कम हो जाती है।
लीफ स्पॉट रोग पर नियंत्रण के तरीके:
- प्रति एकड़ खेत में 200 मिलीलीटर एज़ोक्सिस्ट्रोबिन 18.2% +डिफेनोकोनाजोल 11.4% एस.सी (देहात सिनपैक्ट, गोदरेज बिलियर्ड्स, बीएसीएफ एड्रोन) का प्रयोग करें।
- प्रति एकड़ खेत में 600-800 ग्राम प्रोपिनेब 70% डब्ल्यू.पी. (देहात जिनेक्टो, बायर एंट्राकोल) का प्रयोग करें।
चूर्णिल आसिता रोग से होने वाले नुकसान: इस रोग की शुरुआत में अंगूर की पत्तियों के ऊपरी भाग पर सफेद रंग के धब्बे उभरने लगते हैं। धीरे-धीरे ये इन धब्बों का आकार बढ़ने लगता है और पूरी पत्ती सफेद पाउडर की तरह पदार्थ से ढक जाते हैं। रोग बढ़ने के साथ पौधों की शाखाओं और फलों पर भी सफेद धब्बे देखे जा सकते हैं। इस रोग के कारण प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में बाधा आती है। जिससे प्रभावित पत्तियां धीरे-धीरे पीली होने लगती हैं। इस रोग से प्रभावित पत्तियां सूख कर गिरने लगती हैं। पौधों के विकास में रुकावट उत्पन्न होने लगती है। इस रोग के कारण फसल की उपज और गुणवत्ता में भारी कमी देखी जा सकती है।
चूर्णिल आसिता रोग पर नियंत्रण के तरीके:
- इस रोग को फैलने से रोकने के लिए प्रभावित पत्तियों को तोड़ कर नष्ट कर दें।
- चूर्णिल आसिता रोग पर नियंत्रण के लिए नीचे दी गई दवाओं में से किसी एक का प्रयोग करें।
- प्रति एकड़ खेत में 300 मिलीलीटर एज़ोक्सिस्ट्रोबिन 11% + टेबुकोनाज़ोल 18.3% एस.सी. (देहात एजीटॉप) का प्रयोग करें।
- प्रति एकड़ खेत में 200 मिलीलीटर एज़ोक्सिस्ट्रोबिन 18.2% +डिफेनोकोनाजोल 11.4% एस.सी (देहात सिनपैक्ट) का प्रयोग करें।
- प्रति एकड़ खेत में 300 ग्राम टाटा ताकत (कैप्टन 70% + हेक्साकोनाज़ोल 5% WP) का प्रयोग करें।
उकठा रोग से होने वाले नुकसान: यह एक फफूंद जनित रोग है। इस रोग के फफूंद मिट्टी में करीब 3 वर्षों तक जीवित रहते हैं। इस रोग की शुरूआती अवस्था में पौधे के निचले पत्ते सूख कर मुरझाने लगते हैं। संक्रमण बढ़ने पर पूरा पौधा पूर्ण रूप से सूख कर मुरझा जाता है। यह संक्रमण तेजी से एक पौधे से दूसरे पौधे में फैलता है। प्रभावित पौधों में लगे फल पूरी तरह से पकने से पहले ही सूख कर गिरने लगते हैं।
उकठा रोग पर नियंत्रण के तरीके:
- फसल को इस घातक रोग से बचाने के लिए फसल चक्र अपनाएं।
- रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें।
- संक्रमित पौधों को खेत से निकाल कर नष्ट कर दें।
- पौधों की रोपाई से पहले 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम 50% (धानुका धानुस्टीन) को प्रति लीटर पानी में मिला कर पौधों की जड़ों को उसमें डुबाकर उपचारित करें।
- प्रति एकड़ खेत में 450 मिलीलीटर कासुगामाइसिन 3% एसएल (धानुका कासु-बी) का प्रयोग करें।
जड़ गलन रोग से होने वाले नुकसान: यह एक फफूंद जनित रोग है। खेत में जल जमाव होने के कारण भी इस रोग के होने की संभावना बढ़ जाती है। इस रोग के कवक मिट्टी में कई वर्षों तक जीवित रह सकते हैं और मिट्टी को लगभग 7 फीट की गहराई तक संक्रमित कर सकते हैं। इस रोग से प्रभावित पौधों के निचले तनों पर सफेद रंग के फफूंद नजर आने लगते हैं। पौधों की पत्तियां पीली से भूरी होने लगती हैं। कुछ समय बाद पत्तियां झड़ने लगती हैं। रोग बढ़ने पर पौधे पर अनियमित आकार के धब्बे उभरने लगते हैं। पौधे आसानी से उंखड़ जाते हैं और उसकी जड़ें गली हुई सी नजर आती हैं।
जड़ गलन रोग पर नियंत्रण के तरीके:
- बुवाई के लिए प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें।
- खेत में जल निकासी की उचित व्यवस्था करें।
- इस रोग को फैलने से रोकने के लिए प्रभावित पौधों को नष्ट करें।
- फसल को इस रोग से बचाने के लिए बुवाई से पहले प्रति किलोग्राम बीज को 3 ग्राम कार्बोक्सिन 37.5% + थीरम 37.5% डब्लूएस (धानुका विटावॅक्स पॉवर, स्वाल इमिवैक्स) से उपचारित करें।
- प्रति किलोग्राम बीज को 6-10 मिलीलीटर ट्राइकोडर्मा विरडी (डॉ. बैक्टो डर्मस) से उपचारित करें।
अश्वगंधा के साथ आप अन्य किन फसलों की खेती करते हैं? अपने जवाब एवं अनुभव हमें कमेंट के माध्यम से बताएं। फसलों को रोगों एवं कीटों से बचाने की अधिक जानकारी के लिए 'किसान डॉक्टर' चैनल को तुरंत फॉलो करें। इसके साथ ही इस पोस्ट को लाइक और शेयर करना न भूलें।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रसवाल | Frequently Asked Questions (FAQs)
Q: अश्वगंधा के पौधे की देखभाल कैसे करें?
A: अश्वगंधा के पौधों को अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी और पूर्ण सूर्य से आंशिक छाया की आवश्यकता होती है। फसल में नियमित रूप से सिंचाई की जानी चाहिए। इसके साथ फसल को विभिन्न रोगों एवं कीटों के प्रकोप से बचाने के लिए लगातार निरिक्षण करते रहें।
Q: अश्वगंधा को कितनी बार पानी देना चाहिए?
A: अश्वगंधा की फसल में सिंचाई की आवृत्ति जलवायु और मिट्टी की स्थिति के अनुसार भिन्न हो सकती है। बेहतर फसल प्राप्त करने के लिए मिट्टी में नमी बनाए रखें। सिंचाई के समय इस बात का विशेष ध्यान रखें कि खेत में जल-जमाव की स्तिति उत्पन्न न हो। गर्म और शुष्क मौसम में नियमित रूप से सिंचाई करें।
Q: अश्वगंधा की खेती कितने दिन में तैयार हो जाती है?
A: सामान्यतौर पर बुवाई के करीब 150-180 दिनों के बाद अश्वगंधा की फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है। जब पौधों की पत्तियां पीली होने लगे तब फसल की खुदाई करें। खुदाई से प्राप्त जड़ों को धूप में अच्छी तरह सुखाएं।
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