पान की खेती (betel leaf farming)
पान (Paan Ki Kheti) एक बहुवर्षीय, सदाबहार, लत्तेदार, उभयलिंगी, और छाया पसंद करने वाली लता है, जिसे नकदी फसलों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भारत में पान की खेती मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, असम, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में होती है। पान के पत्तों का उपयोग सांस्कृतिक, धार्मिक और औषधीय प्रयोजनों के लिए किया जाता है। इसकी खेती के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है, और इसे ट्रेलेज़ या डंडों पर उगाया जाता है। पान के पत्ते स्थानीय बाजारों में बेचे जाते हैं और अन्य देशों में निर्यात भी किए जाते हैं। हालांकि, पान की खेती में अत्यधिक पानी की जरूरत और मिट्टी के क्षरण को लेकर पर्यावरणीय चिंताएं बनी रहती हैं।
कैसे करें पान की खेती? (How to cultivate betel leaf?)
- जलवायु: पान एक उष्णकटिबंधीय पौधा है और इसकी पैदावार के लिए अनुकूल परिस्थितियां आवश्यक है। इसकी बढ़वार नम, ठंडे, और छायादार वातावरण में अच्छी होती है। पान की खेती के लिए 28-35 डिग्री सेल्सियस का तापमान सर्वोत्तम माना जाता है। पान की बेलें तापमान के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती हैं, और अत्यधिक गर्मी या ठंड पान की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकती है। पान बेलों का सबसे अच्छा विकास उन क्षेत्रों में होता है, जहाँ तापमान में मध्यम परिवर्तन होता है।
- मिट्टी: पान की खेती के लिए महीन ह्यूमस युक्त उपजाऊ मृदा सर्वोत्तम होती है। बलुई, दोमट, लाल, एल्युवियल और लैटेराइट मृदा में भी पान की खेती की जा सकती है। पान की बेलों के लिए उचित जल निकास वाली भूमि चाहिए। ढालू या टीलेनुमा क्षेत्र, जहाँ जल निकास की व्यवस्था अच्छी हो, पान की खेती के लिए उपयुक्त होते हैं। 5.6 से 8.2 पीएच मान वाली मृदा पान की खेती के लिए सबसे उपयुक्त होती है।
- बुवाई का समय: पान बेलों की रोपाई फरवरी के अंत से 20 मार्च तक की जाती है। इस समय में मौसम और मिट्टी की स्थिति पान की बेलों के लिए अनुकूल होती है।
- किस्में: उत्तर भारत में मुख्य रूप से जिन प्रजातियों का प्रयोग किया जाता है, वे निम्नलिखित हैं: देसी, देशावरी, कलकतिया, कपूरी, बांग्ला, सौंफिया, रामटेक, मघई, बनारसी आदि।
- खेत की तैयारी: पान की खेती के लिए गहरी जुताई 15 जनवरी के बाद शुरू होती है। भूमि को 25-30 सेंटीमीटर की गहराई तक जुताई करके पूरी तरह भुरभुरी किया जाता है। इसके बाद, मिट्टी की दो बार हल्की जुताई करके पाटा चलाकर खेत को समतल किया जाता है। ऊंची मिट्टी पर ढलान वाले क्षेत्रों में पानी के निकास की सुविधा के लिए बरेजा तैयार किया जाता है।
- रोपाई विधि: पंक्ति विधि से रोपाई की जाती है, जिसमें दोहरे पान बेलों का उपयोग किया जाता है। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30×30 सेमी या 45×45 सेमी रखनी चाहिए, ताकि बेलों का सही विकास हो सके और उन्हें पर्याप्त प्रकाश प्राप्त हो सके। पान बेल के प्रत्येक नोड पर जड़ें होती हैं, जो समय के साथ मिट्टी में फैल जाती हैं और बेलों का प्रवर्द्धन शुरू हो जाता है।
- बीज का चुनाव: पान बेल के मध्य भाग की कलमें आदर्श होती हैं, क्योंकि ये अधिक प्रबल और स्वस्थ होती हैं। पान के कलमों को घास से अच्छी तरह मल्च किया जाता है और तीन बार पानी का छिड़काव किया जाता है। मार्च में तापमान तेजी से बढ़ता है, इसलिए पौधों की सुरक्षा के लिए नियमित पानी देना आवश्यक होता है।
- मिट्टी का उपचार: बुवाई से पहले मिट्टी का उपचार 50 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण के साथ किया जाता है। 500 पीपीएम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन का उपयोग करके पान बेलों को फफूंद और जीवाणुओं से बचाया जाता है। पान की फसल को प्रभावित करने वाले जीवाणुओं और फफूंद को नष्ट करने के लिए 1 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण का घोल बनाकर छिड़काव किया जाता है।
- उर्वरक प्रबंधन: पान की बेलों को अच्छा पोषक तत्व प्राप्त हो इसके लिए प्रायः पान की खेती में उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। पान की खेती में प्रायः कार्बनिक तत्वों का प्रयोग किया जाता है। उत्तर भारत में सरसों, तिल, नीम या अरंडी की खली का प्रयोग किया जाता है, जो जुलाई-अक्टूबर में 15 दिन के अन्तराल पर दिया जाता है। वर्षा काल के दिनों में खली के साथ थोड़ी मात्रा में यूरिया का प्रयोग भी किया जाता है। खली को चूर्ण करके मिट्टी के पात्र में भिगो दिया जाता है तथा 10 दिन तक अपघटित होने दिया जाता है। उसके बाद उसे घोल बनाकर बेल की जड़ों पर दिया जाता है। इसे और पौष्टिक बनाने के लिए उस घोल में गेहूं, चावल, और चने के आटे का प्रयोग भी करते हैं।
- सिंचाई प्रबंधन: पान की खेती में हल्की और बार-बार सिंचाई की जरूरत होती है। परंपरागत विधि में 'लोटी' या 'माढ़' से सिंचाई की जाती है। रोपाई के बाद पुआल से बेल को ढककर 10-12 दिन तक 2-3 घंटे के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। पान को नियमित जल की आवश्यकता होती है, लेकिन जलजमाव से बचाना जरूरी है। गर्मियों में 5-7 दिनों और सर्दियों में 10-15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए, जबकि बरसात में कम सिंचाई की आवश्यकता होती है। शोध में पाया गया है कि टपक सिंचाई पद्धति से पान की उपज बढ़ती है और जल संरक्षण होता है।
- खरपतवार प्रबंधन: पान की खेती में अच्छे उत्पादन के लिए समय-समय पर निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। बरेजों से अनावश्यक खरपतवार को समय-समय पर निकालते रहना चाहिए। सितम्बर-अक्टूबर में पारियों के बीच मिट्टी की कुदाल से गुड़ाई करके 40-50 सेमी की दूरी पर मेड़ बनाते हैं व आवश्यकतानुसार मिट्टी चढ़ाते हैं।
- फसल चक्र: अच्छे पान की खेती के लिए खाली समय में अच्छे फसल चक्र का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिए दलहनी फसलों यथा-उर्द, मूंग, अरहर, मूंगफली, व हरे चारे की फसलें यथा-सनई, ढैंचा आदि की खेती करनी चाहिए, जिससे मृदा में नत्रजन की अच्छी मात्रा उपलब्ध हो सके।
- स्टेकिंग/सहारा देना: पान की कलमों को 6 सप्ताह की उम्र में बांस की फन्टी, सनई, या जूट की डंडी से सहारा देना चाहिए। 7-8 सप्ताह बाद कलम के पत्तों को हटा दें, जिसे “पेडी का पान” कहते हैं; इसकी बाजार में विशेष मांग और अधिक कीमत होती है। 10-12 सप्ताह बाद पान बेलें 1.5-2 फीट लंबी हो जाती हैं, तब पत्तों की तुड़ाई शुरू की जाती है।
- फसल चक्र: अच्छे पान की खेती के लिये खाली समय में अच्छे फसल चक्र का प्रयोग करना चाहिये। इसके लिये दलहनी फसलों यथा-उड़द,मूंग,अरहर,मूंगफली व हरे चारे की फसलें यथा-सनई,ढैंचा,आदि की खेती करनी चाहिए। जिससे कि मृदा में नत्रजन की अच्छी मात्रा उपलब्ध हो सके।
- रोग एवं कीट प्रबंधन: रोग एवं कीट प्रबंधन में पान की फसल को पर्ण गलन रोग, तना गलन, और तना श्याम वर्ण रोग जैसे प्रमुख रोगों का सामना करना पड़ सकता है। इन रोगों के कारण पान की बेलों की गुणवत्ता और उपज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसके साथ ही, बिटल बाइन बग, मिलीबग, और सफेद मक्खी जैसे हानिकारक कीट भी पान की बेलों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। ये कीट पत्तियों को खा कर फसल को कमजोर कर देते हैं, जिससे पान की बेलें पूरी तरह से नष्ट हो सकती हैं। इसलिए, रोग और कीटों का समय पर पहचान और प्रबंधन फसल की सफलता के लिए अत्यंत आवश्यक है।
- तुड़ाई एवं उपज: जो पान का पत्ता बिचड़ा के साथ रोपण में इस्तेमाल किया जाता है उस पान को बरसात से पूर्व तोड़ लिया जाता है। नये पौधे से विक्रय हेतु पान तोड़ने का कार्य पौधों की बढ़वार एवं पत्तियों की परिपक्वता पर निर्भर करता है। पूरे वर्ष भर में एक पौधे से लगभग 60-70 पत्ते प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् पूरे वर्ष में एक हेक्टेयर जमीन से 60-70 लाख पत्ते की तुड़ाई की जा सकती है। पान को हमेशा डंठल सहित तोड़ा जाता है।
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न | Frequently Asked Questions (FAQs)
Q: पान की खेती कौन से राज्य में होती है?
A: पान की खेती भारत के विभिन्न राज्यों में की जाती है, जिनमें असम, आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, ओडिशा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र शामिल हैं। ये राज्य पान की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु और मिट्टी की स्थिति प्रदान करते हैं।
Q: पान की खेती कैसे की जाती है?
A: पान की खेती करने के लिए पहले भूमि की गहरी जुताई की जाती है, जिससे मृदा की संरचना में सुधार होता है। इसके बाद दो बार हल्की जुताई की जाती है और मेड़बंदी की जाती है। यह प्रक्रिया फरवरी के अंत तक पूरी कर ली जाती है। फिर, फरवरी के अंतिम सप्ताह से लेकर 20 मार्च तक पान की बेलों को पंक्ति विधि से लगाया जाता है, जिसमें डबल बेलों का प्रयोग किया जाता है। पान की बेलों के नोड़ पर जड़ें होती हैं, जो उचित समय पर मृदा में अपना संचार करती हैं और बेलों का विकास शुरू होता है।
Q: पान का पौधा कब लगाया जाता है?
A: पान का पौधा सामान्यतः बरसात के मौसम में लगाया जाता है, क्योंकि इस समय मृदा में पर्याप्त नमी होती है, जो पौधों के विकास के लिए सहायक होती है। पान लगाने के बाद लगभग 3 से 4 हफ्ते में पौधों में पत्ते दिखना शुरू हो जाते हैं। शुरुआत में, गमले के बीच में एक लकड़ी या सहारा लगाना चाहिए, ताकि पौधों को मजबूती मिले और उनका विकास बेहतर हो सके।
Q: पान की कितनी वैरायटी है?
A: पान की प्रमुख किस्में विभिन्न विशेषताओं के लिए जानी जाती हैं। बंगला पान मीठे स्वाद के लिए प्रसिद्ध है, मगही पान तीखा और खुशबूदार होता है, और सांची पान की पत्तियां बारीक और सुगंधित होती हैं। देशावरी पान की पत्तियां बड़ी और मोटी होती हैं, कपूर पान अपने खास स्वाद और औषधीय गुणों के लिए जाना जाता है, जबकि मीठी पत्ती पान अपने मीठे स्वाद के कारण विभिन्न खाद्य पदार्थों में इस्तेमाल होती है।
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