सेब में लगने वाले प्रमुख रोग (Major diseases of apple)
भारत में सेब की खेती मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, उत्तराखंड, और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में की जाती है। इसके अलावा, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, पंजाब, और सिक्किम के कुछ क्षेत्रों में भी सेब का उत्पादन होता है। सेब की खेती में कई प्रकार के रोगों का प्रकोप होता है जो फसल की गुणवत्ता और उत्पादन को प्रभावित कर सकते हैं। इन रोगों का समय पर पहचान और सही प्रबंधन आवश्यक होता है। सेब के प्रमुख रोग और उनके प्रबंधन के उपाय निम्नलिखित हैं।
सेब के रोगों को कैसे नियंत्रित करें? (How to control diseases of apple?)
एन्थ्रेक्नोज (धब्बा रोग/श्याम वर्ण)
एन्थ्रेक्नोज एक गंभीर फफूंद रोग है जो सेब के पौधे के विभिन्न भागों को प्रभावित करता है, जिसमें पत्तियां, तने, और फल शामिल हैं। यह रोग खासकर गर्म और आर्द्र मौसम में पनपता है। बारिश के छींटों, सिंचाई, या संक्रमित औजारों और उपकरणों के कारण यह रोग तेजी से फैल सकता है।
लक्षण:
- संक्रमित पत्तियों पर गुलाबी रंग के बीजाणु समूह के साथ काले धब्बे दिखाई देते हैं।
- फलों पर गहरे केंद्रों के साथ धंसे हुए घाव बन जाते हैं।
- सेब के पौधे में शुरुआत से ही लाल-बैंगनी रंग के छोटे गोल आकार के धब्बे बनते हैं, जो गीले होने पर साफ दिखाई देते हैं।
- समय के साथ ये धब्बे लंबाकार और गड्ढेदार हो जाते हैं और उनका रंग नारंगी से भूरा हो जाता है।
- नई पत्तियों और फलों पर भूरे धब्बे या चकत्ते बन जाते हैं। फलों में भंडारण के दौरान "बुल्स आई रॉट" यानी बैल की आंखों के आकार की सड़न हो जाती है।
- अधिक संवेदनशील किस्मों में पत्तियों का झड़ना और पौधों का कमजोर होना देखा जा सकता है, जिससे फलों की गुणवत्ता में कमी आ जाती है।
नियंत्रण:
- एज़ोक्सिस्ट्रोबिन 18.2% + डिफेनोकोनाज़ोल 11.4% SC (देहात सिम्पैक्ट, सिंजेंटा एमिस्टार टॉप) की 1 मिलीलीटर मात्रा का छिड़काव प्रति लीटर पानी की दर से करें।
- एज़ोक्सीस्ट्रोबिन 11% + टेबुकोनाज़ोल 18.3% डब्ल्यू/डब्ल्यू एससी (देहात आजीटॉप, एडामा कस्टोडिया) का प्रयोग 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से करें।
- प्रति लीटर पानी में 2 ग्राम मैंकोजेब या 3 ग्राम ब्लू कॉपर (कॉपर ऑक्सीक्लोराइड) मिलाकर छिड़काव करें। आवश्यकता होने पर फल आने तक 10 से 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव कर सकते हैं।
- कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50% डब्लू.पी. (ब्लू कॉपर, धानुका धानुकॉप) को 500 से 600 ग्राम प्रति एकड़ की दर से इस्तेमाल करें।
चूर्णिल आसिता (Powdery Mildew)
चूर्णिल आसिता सेब सहित कई अन्य पौधों की प्रजातियों को प्रभावित करने वाला एक फफूंद रोग है। यह रोग पत्तियों, टहनियों, और फूलों पर सफेद या आटे जैसी वृद्धि के रूप में दिखाई देता है।
लक्षण:
- सफेद फफूंद की वृद्धि पौधों के हरे भागों पर होती है।
- यह रोग विशेष रूप से पत्तियों, टहनियों, और फूलों पर दिखाई देता है।
- इस सफेद फफूंद की वृद्धि से पौधे की प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है, जिससे फलों का विकास रुक जाता है।
नियंत्रण:
- खेत में पड़े संक्रमित पौधों के अवशेषों को हटाकर नष्ट कर देना चाहिए।
- पत्तियों पर पानी ना डालें ताकि फफूंद का प्रसार ना हो सके।
- कार्बेन्डाजिम 12% + मैंकोजेब 63% WP (देहात साबू, साफ, स्टाम्प) दवा को 300-600 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें।
- एज़ोक्सीस्ट्रोबिन 11% + टेबुकोनाज़ोल 18.3% डब्ल्यू/डब्ल्यू एससी (देहात आजीटॉप, एडामा कस्टोडिया) का प्रयोग 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से करें।
- एज़ोक्सिस्ट्रोबिन 18.2% + डिफेनोकोनाज़ोल 11.4% SC (देहात सिम्पैक्ट, सिंजेंटा एमिस्टार टॉप) की 1 मिलीलीटर मात्रा का छिड़काव प्रति लीटर पानी की दर से करें।
सेब पपड़ी रोग (Apple Scab)
सेब पपड़ी रोग एक गंभीर समस्या है जो मुख्य रूप से पत्तियों, टहनियों और फलों को प्रभावित करती है। यह रोग फसल की गुणवत्ता और उत्पादन को बहुत अधिक प्रभावित कर सकता है।
लक्षण:
- वसंत में पत्तियों पर छोटे, गोल, जैतून-हरे धब्बे दिखाई देते हैं, जो मुख्य शिराओं के आसपास होते हैं।
- समय के साथ ये धब्बे भूरे-काले रंग में बदल जाते हैं और आपस में मिलकर बड़े खराब हिस्सों का रूप ले लेते हैं।
- संक्रमित पत्तियां टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती हैं और गंभीर संक्रमण होने पर समय से पहले गिर जाती हैं।
- नई टहनियों पर संक्रमण से फफोले बन जाते हैं, जो बाद में चटक जाते हैं, जिससे अन्य रोगाणुओं का प्रवेश संभव हो जाता है।
- फलों पर भूरे से गहरे भूरे गोल धब्बे दिखाई देते हैं, जो समय के साथ उभरकर सख्त और कड़े हो जाते हैं।
- इस कारण फल की वृद्धि रुक जाती है, फल टेढ़ा-मेढ़ा हो जाता है और छिलके के फटने से गूदा बाहर आ जाता है।
नियंत्रण:
- खेत में पड़े संक्रमित पौधों के अवशेषों को हटाकर नष्ट कर देना चाहिए।
- पत्तियों पर पानी ना डालें ताकि फफूंद का प्रसार ना हो सके।
- एज़ोक्सीस्ट्रोबिन 11% + टेबुकोनाज़ोल 18.3% डब्ल्यू/डब्ल्यू एससी (देहात आजीटॉप, एडामा कस्टोडिया) का प्रयोग 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से करें।
- रोग के शुरुआती अवस्था में कासु-बी (कासुगामाइसिन 3% एस.एल) दवा का इस्तेमाल 400-600 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर से पौधों की ड्रेंचिंग करें।
- कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50% डब्लू.पी. (ब्लू कॉपर, धानुका धानुकॉप) दवा को 500 से 600 ग्राम प्रति एकड़ की दर से इस्तेमाल करें।
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अक्सर पूछे जाने वाले सवाल | Frequently Asked Questions (FAQs)
Q: सेब की खेती के लिए सबसे उपयुक्त मिट्टी कौन सी होती है?
A: दोमट (Loamy Soil)
मिट्टी सेब की खेती के लिए सबसे उपयुक्त होती है। दोमट मिट्टी में
जल धारण क्षमता
और
जल निकासी
दोनों अच्छी होती हैं, जिससे पौधों की
जड़ों
को पर्याप्त
नमी
और
पोषक तत्व
मिलते हैं। सेब के पेड़ों को
समृद्ध
,
उपजाऊ
, और अच्छी तरह से निचली मिट्टी की आवश्यकता होती है। मिट्टी का
pH स्तर 6.0 से 7.0
के बीच होना चाहिए।
Q: सेब के पौधों की बुवाई का सबसे अच्छा समय क्या होता है?
A:
सेब के पौधे
जनवरी और फरवरी
के महीने में लगाए जा सकते हैं। इस समय अवधि में मिट्टी में
नमी
की मात्रा पर्याप्त होती है, और
तापमान
भी पौधों की
वृद्धि
के लिए अनुकूल होता है। पौधों को लगाने से पहले मिट्टी की
तैयारी
और उचित
सिंचाई
की योजना बनाना आवश्यक है।
Q: सेब का मुख्य उत्पादक राज्य कौन-कौन से हैं?
A:
भारत में सेब के मुख्य उत्पादक राज्यों में
जम्मू और कश्मीर
,
हिमाचल प्रदेश
,
उत्तराखंड
,
अरुणाचल प्रदेश
,
नगालैंड
,
पंजाब
, और
सिक्किम
शामिल हैं। ये राज्य अपनी
ठंडी जलवायु
और उपयुक्त मिट्टी के कारण सेब की खेती के लिए प्रसिद्ध हैं। विशेषकर
हिमाचल प्रदेश
और
जम्मू और कश्मीर
को उच्च गुणवत्ता वाले सेब के उत्पादन के लिए जाना जाता है।
Q: सेब की खेती के दौरान किस अवधि में फल मिलना शुरू होता है?
A:
सेब की खेती में पौधों से
फल मिलना
शुरू होता है लगभग
3 से 5 साल
के बाद। सेब के पेड़ के प्रकार और उसकी देखभाल पर निर्भर करता है कि वह कितनी जल्दी फल देने लगेगा। पहले कुछ वर्षों में पौधे की सही
देखभाल
और
पोषण
देने से उत्पादन में तेजी आ सकती है।
Q: सेब की खेती में बुवाई और रोपाई का सही तरीका क्या है?
A:
सेब की खेती में नर्सरी से लाए गए
साल पुराने पौधे
को बुवाई के समय संतुलित रूप से और उचित गहराई में लगाना चाहिए। पौधों को लगाने से पहले मिट्टी की
तैयारी
, उचित मात्रा में
खाद
और
पानी
की व्यवस्था करनी चाहिए। पौधों के बीच
उचित दूरी
रखना चाहिए ताकि उन्हें बढ़ने के लिए पर्याप्त स्थान मिल सके।
रोपाई
के बाद नियमित
सिंचाई
और
देखभाल
आवश्यक है ताकि पौधे स्वस्थ रहें और अच्छी फसल दें।
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