रबड़ की खेती से होगा मुनाफा (Profitable Opportunities in Rubber Farming)
रबड़ (Rubber) एक सुन्दर और सदाबहार पौधा है, जिसे रबड़ प्लांट या रबड़ ट्री भी कहते हैं। यह भूमध्य रेखीय सदाबहार वनों में पाया जाता है और इसके दूध, जिसे लेटेक्स कहते हैं, से रबड़ तैयार की जाती है। भारत में रबड़ का उत्पादन सबसे पहले पेरियार तट, उत्तरी त्रावणकोर (केरल) में हुआ था। इसकी खेती मुख्य रूप से रबड़ का उत्पादन केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और पूर्वोत्तर में असम और त्रिपुरा में होता है। केरल भारत का सबसे बड़ा रबड़ उत्पादक राज्य है।
कैसे करें रबड़ की खेती? (How to cultivate rubber?)
- मिट्टी: रबड़ के पौधे अच्छे जल निकास वाली और उपजाऊ दोमट मिट्टी में सबसे बेहतर विकसित होते हैं। इसके लिए 4.5 से 6.0 तक के अम्लीय पीएच वाली मिट्टी उपयुक्त मानी जाती है। ऐसी मिट्टी में पौधों की जड़ें अच्छी तरह से फैलती हैं और उनका विकास तेजी से होता है।
- जलवायु: रबड़ के पौधे हल्की और नम जलवायु में अच्छी तरह पनपते हैं। यह पौधा मूल रूप से भूमध्यसागरीय जलवायु में पाया जाता है, जहां 25° से 30°C के बीच तापमान और 150 से 200 सेमी वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है। यह जलवायु लेटेक्स के उत्पादन को बढ़ाने के लिए अनुकूल होती है।
- उन्नत किस्में: भारतीय रबड़ अनुसंधान संस्थान ने कई सालों के शोध के बाद उच्च उत्पादकता और बीमारियों के प्रति सहनशीलता वाली रबड़ की कई उन्नत किस्में विकसित की हैं। इनमें तजीर 1, पीबी 86, बीडी 5, बीडी 10, पीआर 17, जीटी 1, आरआरआईआई 105, आर.आर.आई.एम 600, पीबी 59, पीबी 217, पी.बी 235, आर.आर.आई.एम 703, आरआरआईआई 5, पी.सी.के-1, 2 और पी.बी 260 शामिल हैं। ये किस्में लेटेक्स की अधिक मात्रा देने और कम रोग झेलने के लिए जानी जाती हैं, जिससे किसानों को अधिक मुनाफा मिलता है।
- बुवाई का समय: रबड़ के पौधों की बुवाई के लिए सबसे उपयुक्त समय जून-जुलाई है। इस दौरान, बीजों से नर्सरी तैयार की जाती है और नए पौधे विकसित करने के लिए कलम विधि (ग्राफ्टिंग) का उपयोग किया जाता है। पौधों के बीच सही दूरी बनाए रखना महत्वपूर्ण है, ताकि उनका विकास स्वस्थ तरीके से हो सके। इसके साथ, 1 घन मीटर (1 m³) गड्ढे का आकार निर्धारित किया जाता है, जिसमें 170 पौधे लगाए जाते हैं। नर्सरी में पौधों के बीच की दूरी 60 x 90 सेंटीमीटर या 60 x 120 सेंटीमीटर होनी चाहिए, जिससे पौधों को पर्याप्त जगह मिल सके और उनका विकास बेहतर हो सके।
- खेत की तैयारी: पौधरोपण से पूर्व खेत की अच्छी तरह जुताई करना आवश्यक है। खेत को समतल करने के लिए पहले गहरी जुताई करें और फिर मिट्टी को भुरभुरी करें। चयनित स्थान को खरपतवार मुक्त रखें और उचित दूरी के अनुसार गड्ढों की खुदाई करें। खेत में गड्ढों को तैयार करने के लिए कल्टीवेटर का उपयोग करें और इसके बाद पाटा लगाकर खेत को समतल करें। पाटा लगाने से खेत समतल हो जाता है, जिससे सिंचाई करने में आसानी होती है। इस प्रकार की सही तैयारी से रबड़ के पौधों का स्वस्थ विकास सुनिश्चित होता है।
- खाद एवं उर्वरक प्रबंधन: नर्सरी में बीज बोते समय वर्मीकम्पोस्ट या गोबर की खाद का उपयोग करना आवश्यक है। पौधरोपण के समय मिट्टी के परीक्षण के आधार पर उचित खाद और उर्वरक का प्रयोग करें। रबड़ के पौधों की रोपाई के लिए प्रत्येक गड्ढे में 10-12 किलो गोबर की खाद या जैविक खाद और 225 ग्राम रॉक फॉस्फेट डालें। पौधों के समुचित विकास के लिए समय-समय पर पोटाश, नाइट्रोजन और फास्फोरस से युक्त उर्वरकों का प्रयोग करें। रबड़ की खेती में खरपतवार से बचाव के लिए नियमित निराई-गुड़ाई करना आवश्यक है।
- सिंचाई प्रबंधन: रबड़ के पेड़ों को पर्याप्त मात्रा में पानी की जरूरत होती है, इसलिए उन्हें नियमित अंतराल पर सिंचाई दी जानी चाहिए। सिंचाई का समय पौधों की आवश्यकता और मौसम के आधार पर तय करें। रबड़ का पौधा सूखे में अच्छे से विकास नहीं कर पाता, इसलिए खेत में नमी बनाए रखना अत्यंत जरूरी है। पौधरोपण के तुरंत बाद हर पौधे को पानी देना आवश्यक है और फिर नियमित अंतराल पर भूमि की नमी बनाए रखने के लिए सिंचाई करें।
- कटाई: रबड़ के पेड़ 6-7 साल में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं, लेकिन 14 साल की उम्र में उनकी पैदावार सबसे अधिक होती है। कटाई के दौरान, पेड़ के तने पर एक विशेष कोण पर चीरा लगाया जाता है, जिससे लेटेक्स (दूधिया रस) निकलता है। यह लेटेक्स कंटेनरों में इकट्ठा किया जाता है। कटाई करते समय ध्यान रखा जाता है कि पेड़ को नुकसान न पहुंचे और चीरा लगाने की प्रक्रिया नियमित अंतराल पर की जाती है।
- उत्पादन: कटाई के बाद इकट्ठा किए गए लेटेक्स को प्रसंस्करण के विभिन्न चरणों से गुजारा जाता है, जिसमें इसे जमाने, धोने और शुद्ध करने की प्रक्रिया शामिल होती हैं। दक्षिण भारत में प्रति एकड़ रबड़ की औसत पैदावार 150 किलोग्राम होती है, जबकि बीज से उगाए गए पौधों से 320 से 400 किलोग्राम तक की पैदावार हो सकती है। तैयार रबड़ का उपयोग विभिन्न उद्योगों, जैसे टायर, जूते, और चिकित्सा उपकरणों में किया जाता है।
पौधे से रबड़ बनाने की प्रक्रिया (Process of making rubber from plants):
- पेड़ से लेटेक्स इकट्ठा करना: रबड़ के पेड़ के तनों में छेद करके उससे निकलने वाले दूध को लेटेक्स के रूप में इकट्ठा किया जाता है।
- गुणवत्ता की जांच: इकट्ठा किए गए लेटेक्स को गुणवत्ता की जांच के लिए केमिकल्स के साथ परीक्षण किया जाता है।
- लेटेक्स को गाढ़ा करना: गुणवत्ता परीक्षण के बाद, लेटेक्स को गाढ़ा होने के लिए रखा जाता है, ताकि इसमें मौजूद पानी का सूखना हो जाए और केवल रबड़ बचे।
- रबड़ की गुणवत्ता: रबड़ के लेटेक्स में शर्करा, प्रोटीन, रेज़िन, खनिज लवण और एंजाइम होते हैं, जो इसे लचीला बनाते हैं।
- उपयोगिता: रबड़ की इस लचीलता के कारण इसे अलग-अलग उत्पादों में उपयोग किया जाता है, जैसे कि जूते, गेंद, और गुब्बारे बनाने के लिए।
क्या आप रबड़ की खेती करते हैं या फिर करना चाहते हैं? अपना जवाब हमें कमेंट करके जरूर बताएं। अपने मनपसंद फसल में बेहतरीन उपज पाने के लिए 'कृषि ज्ञान' चैनल को अभी फॉलो करें। अगर आपको यह पोस्ट पसंद आयी तो इसे लाइक करें और अपने अन्य किसान मित्रों के साथ शेयर करना न भूलें।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल | Frequently Asked Questions (FAQs)
Q: भारत का रबड़ उत्पादक राज्य कौन सा है?
A: केरल राज्य भारत में रबर का सबसे बड़ा उत्पादक है, जिसका देश के कुल रबर उत्पादन का लगभग 90% हिस्सा है। भारत के अन्य प्रमुख रबर उत्पादक राज्यों में तमिलनाडु, कर्नाटक और त्रिपुरा और असम जैसे पूर्वोत्तर राज्य शामिल हैं। भारत में उत्पादित रबर का उपयोग मुख्य रूप से टायर, जूते और अन्य औद्योगिक उत्पाद बनाने के लिए किया जाता है।
Q: रबर की खेती कैसे की जाती है?
A: रबर की खेती मुख्य रूप से टैपिंग नामक एक प्रक्रिया के माध्यम से की जाती है, जिसमें रबर के पेड़ों की छाल में छेद किया जाता है ताकि लेटेक्स सैप बाहर आ सके। यह सैप को कपों में इकट्ठा किया जाता है और फिर रबर का उत्पादन किया जाता है। रबर पेड़ों को आमतौर पर 6-8 मीटर की दूरी पर लगाया जाता है और प्रत्येक पेड़ को 30 साल तक टैप किया जा सकता है।
Q: रबड़ की खेती के लिए कौन सी जलवायु चाहिए?
A: रबड़ के पौधे लगाने के लिए हल्की नरम जलवायु की आवश्यकता होती है। रबड़ का पौधा मूल रूप से भूमध्य जलवायु की उपज है। इसके लिए 25°से 30° तापमान और 150 से 200 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है।
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