तारामीरा के प्रमुख रोग और उनका प्रबंधन (Major Diseases of Taramira and Their Management)
तारामीरा एक प्रमुख तिलहन फसल है, जो मुख्य रूप से सूखे क्षेत्रों में उगाई जाती है। यह फसल अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता और कम पानी की आवश्यकता के लिए जानी जाती है, लेकिन इसमें भी कुछ प्रमुख बीमारियां लग सकती हैं, जो उपज और गुणवत्ता को प्रभावित कर सकती हैं। तारामीरा की खेती में पाउडरी मिल्ड्यू (छाछया रोग), सफेद रोली (व्हाइट रस्ट), और आर्द्र-गलन (वेट रॉट) जैसे रोगों का प्रकोप सबसे ज्यादा देखने को मिलता है। इस लेख में हम इन रोगों के लक्षण और उनके प्रबंधन के बारे में विस्तार से जानेंगे।
तारा मीरा में रोगों पर नियंत्रण कैसे करें? (How to control diseases in taramira)
छाछया रोग (Powdery Mildew):
- यह एक फफूंद जनित रोग है, जो तारामीरा की पत्तियों और तनों पर सफेद चूर्ण के रूप में दिखाई देती है।
- शुरुआती अवस्था में यह मटमैले सफेद चूर्ण के रूप में पत्तियों और टहनियों पर फैलती है।
- समय के साथ ये चूर्ण पूरी पत्तियों और तनों पर फैल कर फसल की सामान्य वृद्धि को प्रभावित करता है।
- इससे पत्तियों में पीलापन आ जाता है और पौधे प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बंद कर देते हैं जिसके कारण पौधों को उचित पोषण नहीं मिल पाता और पत्तियां झड़ने लगती है, जिससे फसल की उपज कम हो जाती है।
नियंत्रण:
- हेक्साकोनाजोल 4% + ज़िनेब 68% WP (पारिजात निश्चित, इंडोफिल अवतार) का 400 ग्राम प्रति एकड़ खेत में छिड़काव करें।
- एज़ोक्सीस्ट्रोबिन 11% + टेबुकोनाजोल 18.3% एस.सी. (देहात एज़ीटॉप, एडामा कस्टोडिया) दवा को 300 एमएल प्रति एकड़ खेत में छिड़काव करें।
- प्रोपिनेब 70% WP (देहात ज़िनक्टो, बायर एंट्राकोल) दवा को 600 से 800 ग्राम प्रति एकड़ खेत में छिड़काव करें।
- प्राइकोनाज़ोल 13.9% + डिफेनोकोनाज़ोल 13.9% ई.सी. (जी.एस.पी वेस्पा) का 200 मि.ली. प्रति एकड़ खेत में छिड़काव करें।
सफेद रोली (White Rust):
- सफेद रोली तारामीरा की एक और प्रमुख बीमारी है, जो मृदा और बीज जनित होती है।
- इस रोग के लक्षण बुवाई के 30-40 दिनों के बाद पत्तियों की निचली सतह पर छोटे-छोटे सफेद धब्बों के रूप में प्रकट होते हैं।
- यह धब्बे बाद में उभरे हुए फफोलों के रूप में बदल जाते हैं, जो धीरे-धीरे पत्तियों की दोनों सतहों पर फैलते हैं।
- जब फफोले फटते हैं, तो सफेद चूर्ण पूरे पत्तों पर फैल जाता है। इसके कारण पत्तियों पर पीले धब्बे बनते हैं, जो धीरे-धीरे आपस में मिलकर पूरी पत्ती को ढक लेते हैं।
- इस रोग के कारण फूल और फलियाँ पूरी तरह से विकृत हो जाती हैं और फलियों में दाने नहीं बनते, जिससे उपज में भारी कमी होती है।
नियंत्रण:
- मेटालेक्सिल 4% + मैनकोज़ेब 64% WP (रिडोमिल गोल्ड, टाटा रैलिस मास्टर) दवा को 400 ग्राम प्रति एकड़ खेत में छिड़काव करें।
- प्राइकोनाज़ोल 13.9% + डिफेनोकोनाज़ोल 13.9% ई.सी. (जी.एस.पी वेस्पा) का 200 मि.ली. प्रति एकड़ खेत में छिड़काव करें।
आर्द्र-गलन (Wet Rot):
- आर्द्र-गलन रोग तारामीरा की जड़ों और तनों पर आक्रमण करता है।
- यह रोग पौधे के निचले हिस्से में पानी भरे धब्बों के रूप में शुरू होता है, जिससे तना कमजोर हो जाता है और पौधा धीरे-धीरे मुरझा कर जमीन पर गिरने लगता है।
- समय के साथ पौधे की जड़ें सड़ने लगती है और पौधा पूरी तरह से सूख कर मर जाता है। इस रोग के कारण फसल की पैदावार में भारी कमी आ सकती है।
नियंत्रण:
- (कार्बोक्सिन 37.5% + थिरम 37.5% डीएस) (धानुका वीटावैक्स पावर, स्वाल इमिवैक्स) का 2-3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज उपचार करें।
- कार्बेन्डाजिम 12% + मेन्कोजेब 63% (धानुका सिक्सर, स्वाल टर्फ, देहात साबू) दवा को 300 ग्राम प्रति एकड़ खेत में जमीन में दें।
- थियोफानेट मिथाइल 70% WP (बायोस्टेड रोको, पारिजात किरिन) दवा को 280 ग्राम प्रति एकड़ जमीन में देना चाहिए।
तारा मीरा में रोगों से बचाव के लिए सावधानियाँ:
- बीज का चयन: प्रमाणित, उन्नत, और रोग रहित बीजों का चयन करें। इससे रोगों का खतरा कम होता है और फसल की गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
- बीज उपचार: बुवाई से पहले बीजों को अच्छी तरह से फफूंदनाशक से उपचारित करें। ताकि बीज रोगमुक्त रहें और उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाये।
- मिट्टी उपचार: भूमि या मृदा उपचार के लिए ट्राइकोडर्मा कवक का उपयोग करें। इसे 3 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से पकी हुई गोबर में मिलाकर मिट्टी में डालें। इससे मृदा जनित रोगों का खतरा कम होता है।
- फसल अवशेष प्रबंधन: पिछले वर्ष की फसलों के अवशेषों को नष्ट करें और रोगग्रस्त पौधों को खेत से बाहर निकालकर जला दें। इससे खेत में रोगाणुओं का प्रकोप कम होता है।
- खरपतवार नियंत्रण: खेत को खरपतवार से मुक्त रखें, बुवाई के 3 दिन के अंदर खरपतवार नाशक दवा का छिड़काव करें। खरपतवार पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, जिससे फसल की वृद्धि और विकास प्रभावित होता है।
- फसल चक्र: रोगाणुओं के जीवन चक्र को तोड़ने के लिए फसल चक्रीकरण अपनाएं। इससे मृदा में रोगाणुओं की संख्या कम होती है और फसल को स्वस्थ वातावरण मिलता है।
- उर्वरक प्रबंधन: मिट्टी की जांच के बाद संतुलित उर्वरकों का उपयोग करें। अधिक नाइट्रोजन उर्वरकों के प्रयोग से बचें, क्योंकि इससे पौधों में रोगों का खतरा बढ़ सकता है।
- सूक्ष्म पोषक तत्वों का उपयोग: जिंक सल्फेट या सल्फर का प्रयोग करें। ये तारामीरा के पौधों के उचित विकास और अधिक तेल की मात्रा प्राप्त करने में सहायक होते हैं।
क्या आप भी तारामीरा की खेती करते हैं? और उनमें रोगों से परेशान हैं? अपना जवाब एवं अनुभव हमें कमेंट करके बताएं। इसी तरह की अन्य रोचक एवं महत्वपूर्ण जानकारियों के लिए 'किसान डॉक्टर' चैनल को अभी फॉलो करें। और अगर पोस्ट पसंद आयी तो इसे लाइक करके अपने किसान दोस्तों के साथ शेयर करना न भूलें।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (Frequently Asked Questions - FAQs)
Q: तारामीरा के स्वास्थ्य लाभ क्या हैं?
A: तारामीरा का तेल हृदय के लिए फायदेमंद होता है और शरीर से हानिकारक तत्वों को निकालता है। यह त्वचा को नमी देता है, सूजन कम करता है, और त्वचा को निखारता है। इसे मालिश के लिए भी प्रयोग किया जाता है, जिससे मांसपेशियों को आराम मिलता है।
Q: तारामीरा की फसल को कौन सी रोग प्रभावित कर सकती हैं?
A: तारामीरा की फसल को सफेद मक्खी, थ्रिप्स, और रस चूसने वाले कीट प्रभावित कर सकते हैं। इसके अलावा, पाउडरी मिल्ड्यू और फ्यूजेरियम विल्ट जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं। बचाव के लिए कीटनाशकों का उपयोग और स्वस्थ बीजों का चयन करना चाहिए।
Q: तारामीरा की फसल के लिए उचित मिट्टी प्रकार क्या है?
A: तारामीरा के लिए रेतीली-लौह मिट्टी सबसे अच्छी होती है, जो जल निकासी में सहायक होती है। मिट्टी का pH स्तर 6.0 से 7.5 के बीच होना चाहिए, और इसे उपजाऊ बनाने के लिए जैविक खाद का उपयोग करना चाहिए।
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