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नील की खेती | Indigo Cultivation
यूरोप में नील की अच्छी मांग होने के कारण अंग्रेज अपनी हुकूमत के दौरान इसकी खेती पर अधिक जोर दिया करते थे। उस दौरान नील की खेती ने किसानों को कई गहरे जख्म दिए। इसलिए अंग्रेजों के जाते ही नील की खेती भी बंद हो गई। लेकिन आज के समय में यही नील की खेती किसानों के लिए मुनाफे का सौदा साबित हो रही है। भारत के घरों में कपड़ों से पीलापन हटाने और दीवारों पुताई में लंबे समय से नील का इस्तेमाल किया जा रहा है।
नील की खेती का इतिहास | History of indigo farming
यूरोप में नील की अच्छी मांग होने के बावजूद अंग्रेजी हुकूमत के दौरान किसान इसकी खेती नहीं करना चाहते थे। इसके मुख्य दो कारण थे। पहला यह कि इसकी खेती जिस भूमि में की जाती थी, वह जमीन बंजर हो जाया करती थी। दूसरा इसकी खेती के लिए किसानों बहुत अधिक ब्याज दर पर ऋण मिलता था और उन्हें बाजार के भाव से बहुत कम कीमत मिलता था। इस उत्पीड़न से परेशान किसानों ने इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। यह आंदोलन लम्बे समय तक चला और अंगेजों के भारत छोड़ कर जाते ही किसानों ने इसकी खेती बंद कर दी।
कैसे करें नील की खेती? | How to cultivate Indigo?
- नील की खेती के लिए उपयुक्त समय: नील की खेती के लिए उपयुक्त समय क्षेत्र और जलवायु पर निर्भर करता है। आमतौर पर, नील की बुवाई वर्षा के मौसम के शुरुआत में की जाती है, जब मिट्टी में पर्याप्त नमी होती है। भारत में, जून से जुलाई का समय नील की बुवाई के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है। इस समय मौसम अनुकूल होता है और पौधों को पर्याप्त मात्रा में पानी मिलता है।
- उपयुक्त जलवायु: नील की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु सबसे अधिक उपयुक्त होती है। इसे अधिकतम 40° सेल्सियस तापमान और न्यूनतम 20° सेल्सियस तापमान के बीच अच्छी तरह से उगाया जा सकता है। अत्यधिक ठंड और पाले से पौधों को नुकसान पहुंच सकता है।
- उपयुक्त मिट्टी: नील की खेती के लिए अच्छी जल निकासी वाली दोमट मिट्टी सर्वोत्तम मानी जाती है। इसे बलुई, दोमट और लाल मिट्टी में भी उगाया जा सकता है। मिट्टी का पीएच स्तर 6.0 से 7.5 के बीच होना चाहिए। भारी मिट्टी और जल जमाव वाली मिट्टी नील की खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती।
- खेत तैयार करने की विधि: नील की खेती के लिए खेत को अच्छी तरह से तैयार करना आवश्यक है। इसके लिए सबसे पहले खेत की गहरी जुताई करें। जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाएगी और खेत में पहले से मौजूद खरपतवार एवं कीट, आदि की समस्या भी दूर होगी। इसके बाद 2-3 बार हल्की जुताई करें और भूमि को समतल बनाने के लिए खेत में पाटा चलाएं। आखिरी जुताई के समय प्रति एकड़ खेत में प्रति एकड़ खेत में 10-12 टन अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग करें। इसके अलावा प्रति एकड़ खेत में 50-60 किलोग्राम यूरिया, 100-120 किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट और 50-60 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश का प्रयोग करें। मिट्टी जांच के आधार पर उचित मात्रा में जस्ता, बोरान और मैंगनीज जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों का भी प्रयोग कर सकते हैं।
- बीज/पौधों की मात्रा: नील की खेती बीज की बुवाई एवं पौधों की रोपाई दोनों विधि से की जा सकती है। हालांकि, बीज की बुवाई के द्वारा खेती करना अधिक प्रचलित है। बीज की बुवाई के द्वारा इसकी खेती करने पर प्रति एकड़ खेत में 4-4.8 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। यदि आप पौधों की रोपाई के द्वारा इसकी खेती करना चाहते हैं तो प्रति एकड़ खेत में करीब 24,000 पौधों की आवश्यकता होती है।
- बुवाई की विधि: बीज की बुवाई कतारों में की जाती है। सभी कतारों के बीच 24-30 इंच की दूरी होनी चाहिए। वहीं पौधों से पौधों के बीच की दूरी 6-8 इंच की दूरी होनी चाहिए। यदि पौधों की रोपाई के द्वारा इसकी खेती कर रहे हैं तो जब नर्सरी में बीज की रोपाई के 4-6 सप्ताह बाद पौधों को सावधानी से निकाल कर मुख्य खेत में रोपाई करें।
- सिंचाई प्रबंधन: नील की खेती में सिंचाई की आवृत्ति और अवधि मिट्टी के प्रकार, जलवायु, वर्षा और फसल विकास चरण जैसे विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है। पौधों के विकास की अवस्था में सिंचाई की आवश्यकता अधिक होती है। बुवाई के तुरंत बाद पहली सिंचाई करें। इससे बीज के अंकुरण में आसानी होती है। प्रारंभिक विकास चरण के दौरान 7-10 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें। इसके बाद मिट्टी में नमी के अनुसार एवं वर्षा की स्थिति के अनुसार 15-20 दिनों के अंतराल पर सिंचाई कर सकते हैं।
- खरपतवार प्रबंधन: खरपतवारों पर नियंत्रण के लिए नियमित अंतराल पर हाथ से निराई करें जिससे खरपतवारों की अधिकता से पौधों को नुकसान न पहुंचे। इसके अलावा मल्चिंग विधि के द्वारा आप जैविक तरीके से खरपतवारों पर नियंत्रण कर सकते हैं। खरपतवारों की समस्या अधिक होने पर कृषि विशेषज्ञों की परामर्श के अनुसार रासायनिक दवाओं का प्रयोग कर सकते हैं।
- रोग एवं कीट नियंत्रण: नील के पौधों में पत्ती धब्बा रोग, उकठा रोग, जड़ सड़न रोग, चूर्णिल आसिता रोग, एन्थ्रेक्नोज, इंडिगो कैटरपिलर, एफिड्स, सफेद मक्खी, थ्रिप्स एवं फुदका कीटों का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग एवं कीटों के प्रकोप का लक्षण नजर आते ही कृषि विशेषज्ञों से परामर्श करें और उनकी परामर्श के अनुसार उचित दवाओं का प्रयोग करें।
- फसल की कटाई: बुवाई के करीब 120-150 दिनों में फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है। जब पौधों की पत्तियां नीली रंगत लेने लगें तब फसल की कटाई करें। पौधों को जमीन की सतह से 2-4 इंच ऊपर से काटें। कटाई के बाद पौधों को छांव में सुखाएं और फिर उनसे रंग निकालने की प्रक्रिया करें।
नील की खेती के समय ध्यान में रखें यह बात
- नील की खेती में फसल चक्र अपनाना बहुत जरूरी है।
- उचित फसल चक्र अपनाए बगैर यदि लगातार एक ही भूमि में नील की खेती की जाए तो इससे भूमि बंजर हो सकती है।
- नील एक ऐसी फसल है जिसे मिट्टी से बहुत सारे पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। अगर मिट्टी में उचित मात्रा में पोषक तत्वों का प्रयोग नहीं किया गया तो इससे मिट्टी का क्षरण और उसकी उर्वरता में कमी हो सकती है। इसलिए मिट्टी की जांच के अनुसार पोषक तत्वों का प्रयोग अवश्य करें।
नील की फसल के साथ आप अन्य किन फसलों की खेती करते हैं? अपने जवाब एवं अनुभव हमें कमेंट के माध्यम से बताएं। इस तरह की अधिक जानकारियों के लिए 'कृषि ज्ञान' चैनल को तुरंत फॉलो करें। इसके साथ ही इस पोस्ट को लाइक और शेयर करना न भूलें।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल | Frequently Asked Questions (FAQs)
Q: भारत में नील की खेती की शुरुआत कहाँ हुई?
A: भारत में नील की खेती की शुरुआत 1777 में बंगाल में हुई।
Q: नील की खेती कैसे होती है बताइए?
A: वर्षा के मौसम में अच्छी तरह से तैयार खेत में बीज की बुवाई के द्वारा नील की खेती की जाती है। फसल को 20-35 डिग्री सेल्सियस के तापमान के साथ गर्म और आर्द्र मौसम की आवश्यकता होती है। पौधों की पत्तियां जन नीली होने लगे तब फसल की कटाई करें और फिर नीली डाई निकालने के लिए संसाधित होते हैं।
Q: अंग्रेज नील की खेती क्यों करते थे?
A: नील एक अत्यधिक लाभदायक नकदी फसल थी और यूरोप में इसकी मांग भी अधिक होती थी। इसलिए अंग्रेज अपनी शासन काल के दौरान नील की खेती कराते थे।
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