Dr. Gajendra Patel
Indore, Madhya Pradesh
पपीता की खेती पपीता, विश्व के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगाया जाने वाला महत्वपूर्ण फल है। केला के पश्चात् प्रति ईकाई अधिकतम उत्पादन देने वाली एवं औषधीय गुणों से भरपूर फलदार पौधा है। पपीता को भारत में लाने का श्रेय डच यात्री लिन्सकाटेन को जाता है जिनके द्वारा पपीता के पौधे वेस्टइंडीज से सन् 1575 में मलेशिया लाया फिर वहां से भारत आया। बड़वानी में भी लगभग 958 हे. क्षेत्रफल में पपीतें की व्यावसायिक खेती की जा रही है। बड़वानी जिले की लाल तथा पीली किस्मे प्रसिध्द हैं पपीते के फलो से पपेन तैयार किया जाता है। जिसका प्रसंस्कृत उत्पाद हेतु उपयोग किया जाता है। पपीता प्यूरी का भी बडा निर्यातक है। जलवायु और मृदा पपीते की नर्सरी पपीता एक उष्णकटिबंधीय जलवायु वाली फसल है जिसको मध्यम उपोष्ण जलवायु जहाँ तापमान 10-26 डिग्री सेल्सियस तक रहता है तथा पाले की संभावना न हो, इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। पपीता के बीजों के अंकुरण हेतु 35 डिग्री सेल्सियस तापमान सर्वोत्तम होता है। ठंड में रात्रि का तापमान 12 डिग्री सेल्सियस से कम होने पर पौधों की वृद्धि तथा फलोत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। पपीता की खेती के लिए 6.5-7.5 पी. एच मान वाली हल्की दोमट या दोमट मिट्टी जिसमें जलनिकास अच्छा हो सर्वाधिक उपयुक्त होती है। पपीते की महत्वपूर्ण किस्में पपीते की किस्मों का चुनाव खेती के उद्देश्य के अनुसार किया जाना चाहिए जैसे कि औद्योगिक रूप से महत्व की किस्में जिनके कच्चे फलों से पपेन निकाला जाता है, पपेन किस्में कहलाती हैं इस वर्ग में महत्वपूर्ण किस्में सी. ओ- 2 ए सी. ओ- 5 एवं सी. ओ- 7 है। इसके साथ दूसरा महत्वपूर्ण वर्ग है टेबिल वैरायटी या जिनको पकी अवस्था में काटकर खाया जाता है। इस वर्ग को पुनः दो भागों में बांटा गया है पारम्परिक पपीते की किस्में :- पारंपरिक पपीते की किस्मों के अंतर्गत बड़वानी लाल, पीला, वाशिंगटन, मधुबिन्दु, हनीड्यू, कुर्ग हनीड्यू , को 1, एवं 3 किस्में आती हैं। नई संकर किस्में उन्नत गाइनोडायोसियस /उभयलिंगी किस्में :- इसके अंतर्गत निम्न महत्वपूर्ण किस्में आती हैः- पूसा नन्हा, पूसा डेलिशियस, सी. ओ- 7 पूसा मैजेस्टी, सूर्या आदि। पपीते की पौध तैयार करने की तकनीक तथा बीज की मात्रा पपीते के 1 हेक्टेयर के लिए आवश्यक पौधों की संख्या तैयार करने के लिए परंपरागत किस्मों का 500 ग्राम बीज एवं उन्नत किस्मों का 300 ग्राम बीज की मात्रा की आवश्यकता होती है। पपीते की पौध क्यारियों एवं पालीथीन की थैलियों में तैयार की जा सकती है। क्यारियों में पौध तैयार करने हेतु क्यारी की लंबाई 3 मीटर, चैड़ाई 1 मीटर एवं ऊंचाई 20 सेमी रखें। प्लास्टिक की थैलियों में पौध तैयार करने के लिए 200 गेज मोटी 20 गुना 15 सेमी आकर की थैलियाँ (जिनमें चारों तरफ एवं नीचे छेद किए गए हो ) में वर्मीकंपोस्ट, रेत, गोबर खाद तथा मिट्टी के 1:1:1:1 अनुपात का मिश्रण भरकर प्रत्येक थैली में 1 या 2 बीज बोंए। खेत की तैयारी तथा रोपण तकनीक - पौध रोपण पूर्व खेत की तैयारी मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर 2-3 बार कल्टिवेटर या हैरो से जुताई करें। तथा समतल कर लें । पूर्ण रूप से तैयार खेत में 45*45*45 सेमी आकार के गढडे 2ग2 मीटर (पंक्ति - पंक्ति एवं पौध से पौ ) की दूरी पर तैयार करें। पोषक तत्व प्रबंधन तकनीक - 200 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम फास्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधा प्रतिवर्ष 3-4 बराबर भागों में बांटकर दें। सिंचाई एवं खरपतवार प्रबंधन तकनीक पपीता के पौधो की अच्छी वृद्धि तथा अच्छी गुणवत्तायुक्त फलोत्पादन हेतु मिटटी में सही नमी स्तर बनाए रखना बहुत जरूरी होता है। नमी की अत्याधिक कमी का पौधों की वृद्धि फलों की उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। सामान्यतः शरद ऋतु में 10-15 दिन के अंतर से तथा ग्रीष्म ऋतु में 5-7 दिनों के अंतराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करें। सिंचाई की आधुनिक विधि ड्रिप तकनीकी अपनाऐ। अंत: वर्तीय फसलें - पपीते बाग में अंतःवर्तीय फसलों के रूप में दलहनी फसलों जैसे मटर, मैथी, चना, फ्रेंचबीन व सोयाबीन आदि ली जा सकती। मिर्च, टमाटर, बैंगन, भिण्डी आदि फसलों को पपीते पौधों के बीच अंतःवर्तीय फसलों के रूप में न उगायें। फलों की तुड़ाई तथा श्रेणीकरण एवं पैकिंग पपीत के पूर्ण रूप से परिपक्व फलों को जबकि फल के शीर्ष भाग में पीलापन शुरू हो जाए तब डंठल सहित तुड़ाई करें। तुड़ाई के पश्चात् स्वस्थ, एक से आकार के फलों को अलग कर लें तथा सड़े गले फलों को अलग हटा दें। पपीते में पौध संरक्षण (एकीकृत कीट प्रबंधन तकनिकी) एफिड - कीट का वैज्ञानिक नाम एफिस गोसीपाई, माइजस परसिकी है। इस कीट के शिशु तथा प्रौढ़ दोनों पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं। तथा पौधे में मौजेक रोग के वाहक का कार्य करते है। प्रबंधन तकनीक - मिथाइल डेमेटान या डायमिथोएट की 2 मिली मात्रा/ ली. पानी में मिलाकर पौध रोपण पश्चात् आवश्यकतानुसार 15 दिन के अंतर से पत्तियों पर छिड़काव करें। लाल मकड़ी - इसे वैज्ञानिक भाषा में ट्रेट्रानायचस सिनोवेरिनस कहते है। यह पपीते का प्रमुख कीट है जिसके आक्रमण से फल खुरदुरे और काले रंग के हो जाते है। तथा पत्तियाँ पर आक्रमण की स्थिति में फफूंद पीली पड़ जाती है। प्रबंधन - पौधे पर आक्रमण दिखते ही प्रभावित पत्तियों को तोड़कर दूर गढढे में दबाऐं। वेटेबल सल्फर 2.5 ग्राम/ ली. या डाइकोफॉल 18.5 ईसी की 2.5 मिली या ओमाइट 1.5 मिली मात्रा/ ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करें। पपीते में एकीकृत रोग प्रबंधन तकनिकी तना गलन (तने तथा जड़ के गलने की बीमारी ) - इस रोग का कारण पीथियम एफिनडरमेटम फाइटोफ्थरा पामीबोरा नामक फफूंद है जिसके कारण पौधे भूमि के पास तने का ऊपरी छिलका पीला होकर गलने लगता है धीर-धीरे गलन जड़ तक पहुँच जाती है। इस कारण फफूंद सूख जाती है और पौधा मर जाता है। प्रबंधन के लिए जलनिकास में सुधार करें तथा रोग ग्रसित पौधों को खेत से निकालकर हटा दें उसके पश्चात् पौधों पर 1 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण या काॅपर आक्सीक्लोराइउ या ब्लाइटाकस दवा की 2 ग्रा / ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करें तथा ड्रेंचिंग करें। डम्पिंग ऑफ (आर्द गलन ) - यह रोग पपीते में नर्सरी अवस्था में आता है जिसका कारण पीथियम एफिनडरमेटस, पी. अल्टीमस फाइटोफ्थोरा पामीबोरा तथा राइजोक्टोनिया स्पी. के कारण होता है। लक्षण - रोगे नीचे (जमीन की सतह के पास से )से गलकर मरने लगते है। प्रबंधन - रोग से बचने के लिए पपीते के बीजों का उपचार बुवाई पूर्व सेरेसान या एग्रोसान जी एन से उपचारित करें तथा नर्सरी को फार्मेल्डिहाइड के 2.5 प्रतिशत घोल से ड्रेंचिंग करें या उपचारित करें। रिंग स्पॉट वायरस - इस रोग का कारण विषाणु है जो कि माहू द्वारा फैलता है | इस रोग के गंभीर आक्रमण की स्थिति में 50-60 प्रतिशत तक हानि हो जाती है | जिस कारण पत्तियों पर क्लोरोसिस दिखाई देता है पत्तियाँ कटी - कटी दिखाई देती है तथा पौधे की वृद्धि रूक जाती है। लीफकर्ल - यह भी विषाणु जनित रोग है जो कि सफेद मक्खी के द्वारा फैलता है जिस कारण पत्तियाँ मुड़ जाती है इस रोग से 70-80 प्रतिषत तक नुकसान हो जाता है। नियंत्रण - स्वस्थ पौधो का रोपण करें। रोगी पौधों को उखाड़कर खेत से दूर गढढे में दबाकर नष्ट करें। सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु अनुसंशित कीटनाशक का प्रयोग करें। पपीते की उत्पादकता बढ़ाने के उपाय 1. पपीते की व्यावसायिक खेती में उभयलिंगी किस्मों जैसे सूर्या ( भारतीय बागवानी अनु. सं. बैंगलोर ) सनराइज सोलो, रेडी लेडी -786 के साथ किचिन गार्डन के लिए पूसा नन्हा, कुर्ग हनीड्यू, पूसा ड्वार्फ, पंत पपीता 1, 2 एवं 3 के चयन को प्राथमिकता दें। 2. रसचूसक कीटों के प्रभाव वाले क्षेत्रो में पपीते को अक्टूबर में रोपण करें। तथा पौधों की नर्सरी कीट अवरोधी नेट हाऊस के भीतर तैयार करें। 3. खाद व उर्वरक की संतुलित मात्रा 250 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम स्फुर तथा 250 -500 ग्राम पोटाश प्रति पौधा/वर्ष प्रयोग करें। 4. सिंचाई के लिए ड्रिप सिंचाई पद्धिति अपनाऐं। 5. फसल में रसचूसक कीटों के नियंत्रण हेतु फेरामोन ट्रेप, प्रकाश प्रपंच का प्रयोग करें तथा नीम सत्व 4 प्रतिशत का छिड़काव करें। 6. पपीते के पौधों को 30 सेमी उठी मेड़ पर 2 गुणा 2 मीटर की दूरी पर रोपाई करें। तथा अंतवर्तीय फसल के रूप में मिर्च , टमाटर बैंगन न लगाएं। पपीते के बगीचे में फर्टीगेशन तकनीक द्वारा पोषक तत्व प्रबंधन पपीते के पौधों जिनको फरवरी में उठी हुई क्यारी पर लगाया गया हो ड्रिप सिंचाई व्यवस्था का उपयोग करें तथा जल विलेय उर्वरकों जैसे 19:19:19 को सिंचाई जल के साथ ड्रिप में देने से उर्वरक की बचत के साथ साथ उसकी उपयोग क्षमता में भी वृद्धि होती है तथा पौधों को आवश्यकतानुसार एवं शीघ्र पोषक तत्व उपलब्द्ध होने से उपज तथा गुणवत्ता दोनों में वृद्धि होती है |
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30 December 2020
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